Friday 10 October 2014

सामाजिक बिखराव का अन्तहीन सिलसिला..........

बिखरता समाज और उजडते हुए गांव ........ 

जो कुछ भी मै लिखने की कोशिश कर रहा हू वो पिछले चार दशको का अनुभव है जिसको शब्दो मे पिरोने की टूटी फूटी कोशिश है....... पिछले लेख मे हमने संयुक्त परिवार के बारे मे लिखा था अब उसके क्रमशः बिखराव के बिषय मे लिखने की कोशिश है............ 70/80 के दशक मे बिखराव का सिलसिला शुरू हुआ जिसके कुछ प्रमुख कारक मेरी समझ मे निम्नवत है....... 

 1. गावो और किसानो की सरकारो द्वारा ऊपेक्षा....जिनमे प्रमुख है बिजली, खेती के लिए पानी, सभी स्तरो पर पढाई के लिए स्कूल और कालेजो का अभाव, स्वास्थय सुविधाओ का न होना।
 2. खेती के लिए बीज, खाद, पशुधन का दिन प्रतिदिन उपेक्षा इत्यादि इत्यादि। 

 बहुत ही लम्बी सूची है एसे कारको की जिससे दिन प्रतिदिन गावो से पलायन जारी है खास तौर छोटे और मझोले काश्तकारो पर उपरोक्त ऊपेक्षा का बहुत असर पडा है लोग मजबूर गाव छोडकर शहरो मे जाने को खेती किसानी पूरी तरह अछूत होकर रह गयी है सरकारे भी आंख बन्द कर सो रही है सिर्फ एक ब्यवसाय जोरो पर है "खेतो को उजाडकर कंक्रीट के जंगलो को लगाना" इस ब्यवसाय मे मंत्री से लेकर संतरी तक लिप्त है। आने वाले पीढी को सिर्फ कंक्रीट जंगल मिलने अनाज तो चीन से आयात कर लिया जायगा। बना बनाया डिब्बा बंद खाना बजार से खरीद कर पेट भरना आने वाली पीढी की नियत बनने वाली है। एसा प्रतीत होता शहरीकरण ये दौर एक बहुत भयंकर ज्वालामुखी को जन्म देने वाला है जिसका खामियाजा आने वाली पीढी को भुगतना है। यहा मै अपने मूल बिषय से भटक गया हू। ..... 

 अब मूल बिषय पर आते है, करीब 70 से 80दशक मे संचारक्रांति ने पूरे समाज को बदल डाला याद करिये जब सिर्फ दूरदर्शन ही एक माध्यम था और रामायण, हमलोग, चुनौती, बिक्रम बेताल जैसे धारावाहिक आते थे जो कि लोगो मे स्वस्थ पारिवारिक और सामाजिक सोच को जन्म देते थे। लेकिन जब से सेटलाइट चैनल आये किस प्रकार से एक सम्पूर्ण भौतिकतावादी समाज का प्रादुरभाव हुआ है यह किसी से छुपा हुआ नही है आजके मध्यम और युवा वर्ग की सोच किस प्रकार बदली है कहने की कोई आवश्यकता नही है....... 

 इसी के साथ कम्प्यूटर और मोबाइल और इन्टरनेट के आने से सोने मे सुहागा हो गया। एसा नही सब कुछ गलत हुआ काफी कुछ अच्छी बाते हुई जैसे त्वरित संदेशो का आदान प्रदान, इन्टरनेट ने वैश्विक ब्यापार को आसान कर दिया, आज गूगल ने तो सम्पूर्ण ब्रहमान्ड की समस्त जानकारियो को करीने से इकट्ठा करके एक अनूठा, अमूल्य, खतरनाक ज्वालामुखी तैयार किया है जिसके बिस्फोट से क्या होगा सोचा नही जा सकता। इसी इन्टरनेट ने ढेर सारे ज्ञानवर्धक सूचनाये दी और इसी ने ढेर सारी सामाजिक विकृतियों को भी जन्म दिया। 

 आजकल के मोबाइल युग मे बहुत कुछ चलायमान होता जा रहा है जिसमे नई पीढी अपनी मोबाइल जैसी त्वरित सोच के साथ अपनी संस्कृति, अपने समाज, और अपनो से कितना दूर होती जा रही है सम्भवतः सभी 40-45 से ऊपर उमर के लोगो को इसका अंदाज होगा किन्तु इन नवयुवको को इसका अहसास तब होगा जब वो खुद 40-50 वर्ष के होगे। इसी क्रम मे पारिवारिक और बिखराव का यह सिलसिला शुरू होकर कहा समाप्त होगा कहना मुश्किल है सभी लोग आत्मकेन्द्रित होते जा रहे हैं, सारा आधुनिक समाज "मैं" शब्द मे समाहित होने को ब्याकुल है। "हम" जैसे शब्द की उपयोगिता समाप्त हो रही है। फलस्वरूप प्राचीन दकियानूसी संयुक्त।परिवार, गांव, समाज, रिश्ते नाते लुप्त हो रहे है और एक अभूतपूर्व भौतिक समाज, भौतिक परिवारो का जन्म हो रहा है जिसमे भावनाओ और संस्कार जैसी अनचाहे शब्दो की कोई उपयोगिता नही है। निम्नलिखित कविता आज के संदर्भ मे काफी सटीक लगती है.......... 

घर फूटे गलियारे निकले आँगन गायब हो गया 
शासन और प्रशासन में अनुशासन ग़ायब हो गया । 
 त्यौहारों का गला दबाया बदसूरत महँगाई ने 
आँख मिचोली हँसी ठिठोली छीना है तन्हाई ने 
फागुन गायब हुआ हमारा सावन गायब हो गया । 
 शहरों ने कुछ टुकड़े फेंके गाँव अभागे दौड़ पड़े 
रंगों की परिभाषा पढ़ने कच्चे धागे दौड़ पड़े 
चूसा ख़ून मशीनों ने अपनापन ग़ायब हो गया । 
 नींद हमारी खोई-खोई गीत हमारे रूठे हैं 
रिश्ते नाते बर्तन जैसे घर में टूटे-फूटे हैं 
आँख भरी है गोकुल की वृंदावन ग़ायब हो गया ।। 


 अंत मे ::मै लेखक नही काफी कुछ कमियां उपरोक्त लेख मे अवश्यसंम्भावी है उसके लिए आशा है पाठक हमे क्षमा करेगे::

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