Thursday 23 October 2014

गावो की धरती

धरती की घटती तितिक्षा

वह धीरे-धीरे खोती जा रही है
सपनों को पालने-पोसने की कुव्वत
मंगलकामनाओं की इच्छा
बच्चों को पुचकारने-दुलारने का ममत्त्व
खेत-खलिहान उसके ख्यालों में नहीं आते
कोयल उसके आम्रलटों में उलझ कूजने की जहमत नहीं उठाती
मल-मूतमय तलछटों ने
वसंत के अतिथियों का सोचना बंद कर दिया है
मौसम भूल गया है उसकी गलबहियाँ में नाचना,
गाना, किलकारना, हुड़दंग मचाना और उर्वर शिकायतें करना

उसकी अंजुरियों में खडे हैं पर्वताकार कारखानों के दानवाकार दैत्य
अमृतवर्षा करने वाले वक्ष में महाचक्रवातों और सुनामियों ने बनाए हैं
तलहीन खड्ड और दर्रे जहां सड़ रही हैं उसके वात्सल्य की लाश
चूर्ण हो चुका है उसके ममत्त्व का कंकाल
अब उसके पास बहुत कम हैं लहलहाने को फसलें
बरसने को स्वांति नक्षत्र की फुहारे
नहीं हैं बुलाने को वसंत और हेमन्त
नहीं हैं उसने समय के साथ साझे में
रबी और खरीफ के दौरान खलिहानों का जायजा लेना भी बंद कर दिया है
कभी वह बच्चों की अंजुरियों में संसार उड़ेल देती थी
बच्चे उसकी अंजुरी में क्या-क्या नहीं पाते थे वे
उसके अंजुरीभर जल में आकंठ नहा लेते थे
अंजुरीभर दाने खा, अघा जाते थे
अंजुरी में बेहिसाब बरक़त थी अंजुरी मोहताज़ नहीं थी वह अक्षुन्ण थी

Saturday 11 October 2014

भारतीय संयुक्त परिवार एक आपबीती......

भारत के संयुक्त परिवार (आज से 40-45 वर्ष पहले)....

जब मैने होश सम्भाला अपने आप को तीन पीढियों के बीच पाया जिसमे सभी सदस्यो मे एक अद्भुत भाईचारा एकता और लगाव और इज्जत तथा समर्पण भाव देखा उसकी रूपरेखा कुछ इस प्रकार थी...... (यहां मै जो भी लिखने की कोशिश कर रहा हू सब मैने खुद देखा है).......

गावो के संयुक्त परिवारो मे उन दिनो एक मुखिया होता था जो कि अक्सर बडे बाबा/दादा ही होते थे या घर का उम्र मे सबसे बडा सद्स्य होता था जो की परिवार के लिए सम्मान सूचक होता था जिसका कार्य समाज मे उस संयुक्त परिवार का प्रभुत्व बनाये रखना होता था इसी कारण गांव और समाज मे होने वाली हर गतिविधियो मे उनका अहम् स्थान हुआ करता था। गांव के साथ उस परिवार के सभी सद्स्य बहुत आदर और सम्मान देते थे।

मुखिया का स्थान ठीक हमारे देश के राष्ट्रपति की तरह हुआ करता था और घर के प्रति मुखिया की जिम्मेदारियां बहुत सीमित होती थी मूलतः सामाजिक जिम्मेदारिया ही निभाना इनका काम था। दूसरे स्थान घर के सही मालिक का होता था इस स्थान पर बाबा/दादा के छोटे भाई या फिर दूसरी पीढी का सबसे बडे सदस्य होते थे जिनका कार्य हमारे देश के प्रधानमंत्री की तरह होता था इनका कार्य घर के समस्त लोगो को एक सूत्र मे बांधे रखना और घर के बाहर और खेती बारी बच्चो की पढाई लिखाई की जिम्मेदारी के साथ साथ घर की दादी या फिर बडी मां के साथ मिलकर घर की महिलाओ को अनुशासित रखना होता था। संम्भवतः सबसे कठिन और महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का काम था। इस प्रकार से करीब तीन से चार पीढियां एक बडे घर मे रहा करते थे।

इन संयुक्त परिवारो मे बच्चो के खूब मजे होते सभी बाबा दादी के सानिध्य मे रहते अपने मां बाप से खास कुछ लेना देना नही होता ज्यादातर परिवारो मे बच्चे किसी एक को बाबा कहते, किसी एक को पिताजी या बाबूजी कहते और किसी एक को चाचा या काका कहते, इसी तरह मां, दादी, चाची को भी नाम और स्थान मिलता। होता यह था कि घर के जिस जोडे का पहला बच्चा होता वो जिस नाम से सभी सदस्यो को संबोधित करता घर के सभी आने वाले बच्चे भी उसी नाम से संबोधित करते और घर के सभी सदस्य छोटे बडे इस संबोधन को बडे गर्व से आत्मसात करते थे।

सौभाग्य से कुछ एसी ही जिन्दगी जीने का अवसर मुझे भी मिला। सही मायनो मे सामाजिक और पारिवारिक मूल्यो की शिक्षा इन परिवारो मे मुफ्त मे मिलती घर के सभी सदस्यो की आत्मा मे यह समरमता रच बस जाती सभी सद्स्यो का समर्पण और आदरभाव देखते बनता। घर मे अपने से बडे को छोटे कभी भूल कर जबाब नही देते थे। परिवार के किसी जोडे को अपने खुद के बच्चो की चिन्ता नही होती थी उसकी चिन्ता अपने पारिवारिक जिम्मेदारियो तक सीमित होती थी। बच्चो की जिम्मेदारी बाबा दादी की हुआ करती थी और बच्चे भी पूरी तरह बाबा और दादी को अपना आदर्श मानते थे। इन परिवारो मे हर सदस्यो की नित्य की दिनचर्या एक अनुशासित सैनिक की तरह होती सुबह 4बजे घर की महिलाये जग जाती और 5वर्ष से उपर के सभी बच्चे 6बजे से 7बजे तक जग जाते। महिलाये अपने नित्यकर्म से निवृत होकर गेहू पीसती हाथ से चलने वाले चक्की से जिसे हमारे यहा जांत कहा जाता था उससे आटा पीसती, इस आटे से बनी और लकडी के चूल्हे पर सेंकी रोटियो का स्वाद का बयान करना मेरे लिए असम्भव है मेरे लिए, यदि इन रोटियो को घर के मक्खन के साथ खाते तो स्वाद........????? और यदि इस आटे की भौरी (लिट्टी) साथ मे मक्खन और चोखा हो तो कहने क्या थे। यहा मै अपने बाबा की बनाई भौरी का जिक्र जरूरी है भौरी इतनी स्वादिष्ट बनाते थे पूरे इलाके मे भौरी बाबा के नाम से मशहूर थे। इसी प्रकार घर मे यदि चावल की जरूरत होती तो घर की औरते ओखली और ढेका का उपयोग करती जिससे उनका स्वास्थ्य दुरुस्त रहता और भी अच्छी बात ये होती की जांत पीसते हुए घरो की औरते गीत और भजन गाती उसी आवाज को सुन कर घर के वयस्को की नीद खुलती और सभी क्रमशः अपने रोजमर्रा के कार्य के निकल पडते। उन दिनो गावो के स्कूल सुबह 9बजे खुलते सभी 8 वर्ष से उपर के बच्चो को भी सुबह 6 से 7बजे उठना ही होता था और दरवाजे पर होने वाले छोटे मोटे सभी कार्य इन बच्चो को ही करना पडता और इसके पश्चात स्कूल की तैयारी मे लग जाते। कुल मिला कर इन संयुक्त परिवारो मे हमारा भारत बसता था।

इन अच्छाईयो के साथ कमिया भी होती थी जैसे .. कोई भी सदस्य घर की अनुसाशित सीमाओ से बाहर सिर्फ अपने लिए नही सोच सकता था किसी की अपनी ब्यक्तिगत जिन्दगी नही होती थी परिवार सिर्फ बडे मुखिया के ही नाम से जाना था। किसी भी सदस्य को अपने ससुराल जाना हो या किसी औरत को मायके जाना हो बिना घर के दूसरे नम्बर के मुखिया की आज्ञा के नही जा सकता था। कुल मिलाकर सभी सदस्य परिवार के लिए होते परिवार पहले बीबी सबसे बाद मे। यहा परिवार से मेरा तात्पर्य संयुक्त परिवार न की आजकल की तरह ✝मै, मेरी बीबी, मेरा बच्चा मिलकर परिवार कहलाता है✝ जिसमे बडे बूढो का स्थान न के बराबर होता है। ऐसे मे कुछ पंक्तियां......

जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने
दादी की हँसुली ने, माँ की पायल ने
उस सच्चे घर की कच्ची दीवारों पर
मेरी टाई टँगने से कतराती है।

माँ को और पिता को यह कच्चा घर भी
एक बड़ी अनुभूति, मुझे केवल घटना
यह अंतर ही संबंधों की गलियों में
ला देता है कोई निर्मम दुर्घटना

जिन्हें रँगा जलते दीपक के काजल ने
बूढ़ी गागर से छलके गंगाजल ने
उन दीवारों पर टँगने से पहले ही
पत्नी के कर से साड़ी गिर जाती है।

जब से युग की चकाचौंध के कुहरे ने
छीनी है आँगन से नित्य दिया-बाती
तबसे लिपे आँगनों से, दीवारों से
बंद नाक को सोंधी गंध नहीं आती

जिसे चिना था घुटनों तक की दलदल ने
सने-पुते-झीने ममता के आँचल ने
पुस्तक के पन्नों में पिची हुई राखी
उस घर को घर कहने में शरमाती है।

साड़ी-टाई बदलें, या ये घर बदलें
प्रश्नचिह्न नित और बड़ा होता जाता
कारण केवल यही, दिखावों से जुड़ हम
तोड़ रहे अनुभूति, भावना से नाता

जिन्हें दिया संगीत द्वार की साँकल ने
खाँसी के ठनके, चूड़ी की हलचल ने
उन संकेतों वाले भावुक घूँघट पर
दरवाज़े की 'कॉल बैल' हँस जाती है।

क्रमशः..............

Friday 10 October 2014

सामाजिक बिखराव का अन्तहीन सिलसिला..........

बिखरता समाज और उजडते हुए गांव ........ 

जो कुछ भी मै लिखने की कोशिश कर रहा हू वो पिछले चार दशको का अनुभव है जिसको शब्दो मे पिरोने की टूटी फूटी कोशिश है....... पिछले लेख मे हमने संयुक्त परिवार के बारे मे लिखा था अब उसके क्रमशः बिखराव के बिषय मे लिखने की कोशिश है............ 70/80 के दशक मे बिखराव का सिलसिला शुरू हुआ जिसके कुछ प्रमुख कारक मेरी समझ मे निम्नवत है....... 

 1. गावो और किसानो की सरकारो द्वारा ऊपेक्षा....जिनमे प्रमुख है बिजली, खेती के लिए पानी, सभी स्तरो पर पढाई के लिए स्कूल और कालेजो का अभाव, स्वास्थय सुविधाओ का न होना।
 2. खेती के लिए बीज, खाद, पशुधन का दिन प्रतिदिन उपेक्षा इत्यादि इत्यादि। 

 बहुत ही लम्बी सूची है एसे कारको की जिससे दिन प्रतिदिन गावो से पलायन जारी है खास तौर छोटे और मझोले काश्तकारो पर उपरोक्त ऊपेक्षा का बहुत असर पडा है लोग मजबूर गाव छोडकर शहरो मे जाने को खेती किसानी पूरी तरह अछूत होकर रह गयी है सरकारे भी आंख बन्द कर सो रही है सिर्फ एक ब्यवसाय जोरो पर है "खेतो को उजाडकर कंक्रीट के जंगलो को लगाना" इस ब्यवसाय मे मंत्री से लेकर संतरी तक लिप्त है। आने वाले पीढी को सिर्फ कंक्रीट जंगल मिलने अनाज तो चीन से आयात कर लिया जायगा। बना बनाया डिब्बा बंद खाना बजार से खरीद कर पेट भरना आने वाली पीढी की नियत बनने वाली है। एसा प्रतीत होता शहरीकरण ये दौर एक बहुत भयंकर ज्वालामुखी को जन्म देने वाला है जिसका खामियाजा आने वाली पीढी को भुगतना है। यहा मै अपने मूल बिषय से भटक गया हू। ..... 

 अब मूल बिषय पर आते है, करीब 70 से 80दशक मे संचारक्रांति ने पूरे समाज को बदल डाला याद करिये जब सिर्फ दूरदर्शन ही एक माध्यम था और रामायण, हमलोग, चुनौती, बिक्रम बेताल जैसे धारावाहिक आते थे जो कि लोगो मे स्वस्थ पारिवारिक और सामाजिक सोच को जन्म देते थे। लेकिन जब से सेटलाइट चैनल आये किस प्रकार से एक सम्पूर्ण भौतिकतावादी समाज का प्रादुरभाव हुआ है यह किसी से छुपा हुआ नही है आजके मध्यम और युवा वर्ग की सोच किस प्रकार बदली है कहने की कोई आवश्यकता नही है....... 

 इसी के साथ कम्प्यूटर और मोबाइल और इन्टरनेट के आने से सोने मे सुहागा हो गया। एसा नही सब कुछ गलत हुआ काफी कुछ अच्छी बाते हुई जैसे त्वरित संदेशो का आदान प्रदान, इन्टरनेट ने वैश्विक ब्यापार को आसान कर दिया, आज गूगल ने तो सम्पूर्ण ब्रहमान्ड की समस्त जानकारियो को करीने से इकट्ठा करके एक अनूठा, अमूल्य, खतरनाक ज्वालामुखी तैयार किया है जिसके बिस्फोट से क्या होगा सोचा नही जा सकता। इसी इन्टरनेट ने ढेर सारे ज्ञानवर्धक सूचनाये दी और इसी ने ढेर सारी सामाजिक विकृतियों को भी जन्म दिया। 

 आजकल के मोबाइल युग मे बहुत कुछ चलायमान होता जा रहा है जिसमे नई पीढी अपनी मोबाइल जैसी त्वरित सोच के साथ अपनी संस्कृति, अपने समाज, और अपनो से कितना दूर होती जा रही है सम्भवतः सभी 40-45 से ऊपर उमर के लोगो को इसका अंदाज होगा किन्तु इन नवयुवको को इसका अहसास तब होगा जब वो खुद 40-50 वर्ष के होगे। इसी क्रम मे पारिवारिक और बिखराव का यह सिलसिला शुरू होकर कहा समाप्त होगा कहना मुश्किल है सभी लोग आत्मकेन्द्रित होते जा रहे हैं, सारा आधुनिक समाज "मैं" शब्द मे समाहित होने को ब्याकुल है। "हम" जैसे शब्द की उपयोगिता समाप्त हो रही है। फलस्वरूप प्राचीन दकियानूसी संयुक्त।परिवार, गांव, समाज, रिश्ते नाते लुप्त हो रहे है और एक अभूतपूर्व भौतिक समाज, भौतिक परिवारो का जन्म हो रहा है जिसमे भावनाओ और संस्कार जैसी अनचाहे शब्दो की कोई उपयोगिता नही है। निम्नलिखित कविता आज के संदर्भ मे काफी सटीक लगती है.......... 

घर फूटे गलियारे निकले आँगन गायब हो गया 
शासन और प्रशासन में अनुशासन ग़ायब हो गया । 
 त्यौहारों का गला दबाया बदसूरत महँगाई ने 
आँख मिचोली हँसी ठिठोली छीना है तन्हाई ने 
फागुन गायब हुआ हमारा सावन गायब हो गया । 
 शहरों ने कुछ टुकड़े फेंके गाँव अभागे दौड़ पड़े 
रंगों की परिभाषा पढ़ने कच्चे धागे दौड़ पड़े 
चूसा ख़ून मशीनों ने अपनापन ग़ायब हो गया । 
 नींद हमारी खोई-खोई गीत हमारे रूठे हैं 
रिश्ते नाते बर्तन जैसे घर में टूटे-फूटे हैं 
आँख भरी है गोकुल की वृंदावन ग़ायब हो गया ।। 


 अंत मे ::मै लेखक नही काफी कुछ कमियां उपरोक्त लेख मे अवश्यसंम्भावी है उसके लिए आशा है पाठक हमे क्षमा करेगे::