भारत के संयुक्त परिवार (आज से 40-45 वर्ष पहले)....
जब मैने होश सम्भाला अपने आप को तीन पीढियों के बीच पाया जिसमे सभी सदस्यो मे एक अद्भुत भाईचारा एकता और लगाव और इज्जत तथा समर्पण भाव देखा उसकी रूपरेखा कुछ इस प्रकार थी...... (यहां मै जो भी लिखने की कोशिश कर रहा हू सब मैने खुद देखा है).......
गावो के संयुक्त परिवारो मे उन दिनो एक मुखिया होता था जो कि अक्सर बडे बाबा/दादा ही होते थे या घर का उम्र मे सबसे बडा सद्स्य होता था जो की परिवार के लिए सम्मान सूचक होता था जिसका कार्य समाज मे उस संयुक्त परिवार का प्रभुत्व बनाये रखना होता था इसी कारण गांव और समाज मे होने वाली हर गतिविधियो मे उनका अहम् स्थान हुआ करता था। गांव के साथ उस परिवार के सभी सद्स्य बहुत आदर और सम्मान देते थे।
मुखिया का स्थान ठीक हमारे देश के राष्ट्रपति की तरह हुआ करता था और घर के प्रति मुखिया की जिम्मेदारियां बहुत सीमित होती थी मूलतः सामाजिक जिम्मेदारिया ही निभाना इनका काम था। दूसरे स्थान घर के सही मालिक का होता था इस स्थान पर बाबा/दादा के छोटे भाई या फिर दूसरी पीढी का सबसे बडे सदस्य होते थे जिनका कार्य हमारे देश के प्रधानमंत्री की तरह होता था इनका कार्य घर के समस्त लोगो को एक सूत्र मे बांधे रखना और घर के बाहर और खेती बारी बच्चो की पढाई लिखाई की जिम्मेदारी के साथ साथ घर की दादी या फिर बडी मां के साथ मिलकर घर की महिलाओ को अनुशासित रखना होता था। संम्भवतः सबसे कठिन और महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का काम था। इस प्रकार से करीब तीन से चार पीढियां एक बडे घर मे रहा करते थे।
इन संयुक्त परिवारो मे बच्चो के खूब मजे होते सभी बाबा दादी के सानिध्य मे रहते अपने मां बाप से खास कुछ लेना देना नही होता ज्यादातर परिवारो मे बच्चे किसी एक को बाबा कहते, किसी एक को पिताजी या बाबूजी कहते और किसी एक को चाचा या काका कहते, इसी तरह मां, दादी, चाची को भी नाम और स्थान मिलता। होता यह था कि घर के जिस जोडे का पहला बच्चा होता वो जिस नाम से सभी सदस्यो को संबोधित करता घर के सभी आने वाले बच्चे भी उसी नाम से संबोधित करते और घर के सभी सदस्य छोटे बडे इस संबोधन को बडे गर्व से आत्मसात करते थे।
सौभाग्य से कुछ एसी ही जिन्दगी जीने का अवसर मुझे भी मिला। सही मायनो मे सामाजिक और पारिवारिक मूल्यो की शिक्षा इन परिवारो मे मुफ्त मे मिलती घर के सभी सदस्यो की आत्मा मे यह समरमता रच बस जाती सभी सद्स्यो का समर्पण और आदरभाव देखते बनता। घर मे अपने से बडे को छोटे कभी भूल कर जबाब नही देते थे। परिवार के किसी जोडे को अपने खुद के बच्चो की चिन्ता नही होती थी उसकी चिन्ता अपने पारिवारिक जिम्मेदारियो तक सीमित होती थी। बच्चो की जिम्मेदारी बाबा दादी की हुआ करती थी और बच्चे भी पूरी तरह बाबा और दादी को अपना आदर्श मानते थे। इन परिवारो मे हर सदस्यो की नित्य की दिनचर्या एक अनुशासित सैनिक की तरह होती सुबह 4बजे घर की महिलाये जग जाती और 5वर्ष से उपर के सभी बच्चे 6बजे से 7बजे तक जग जाते। महिलाये अपने नित्यकर्म से निवृत होकर गेहू पीसती हाथ से चलने वाले चक्की से जिसे हमारे यहा जांत कहा जाता था उससे आटा पीसती, इस आटे से बनी और लकडी के चूल्हे पर सेंकी रोटियो का स्वाद का बयान करना मेरे लिए असम्भव है मेरे लिए, यदि इन रोटियो को घर के मक्खन के साथ खाते तो स्वाद........????? और यदि इस आटे की भौरी (लिट्टी) साथ मे मक्खन और चोखा हो तो कहने क्या थे। यहा मै अपने बाबा की बनाई भौरी का जिक्र जरूरी है भौरी इतनी स्वादिष्ट बनाते थे पूरे इलाके मे भौरी बाबा के नाम से मशहूर थे। इसी प्रकार घर मे यदि चावल की जरूरत होती तो घर की औरते ओखली और ढेका का उपयोग करती जिससे उनका स्वास्थ्य दुरुस्त रहता और भी अच्छी बात ये होती की जांत पीसते हुए घरो की औरते गीत और भजन गाती उसी आवाज को सुन कर घर के वयस्को की नीद खुलती और सभी क्रमशः अपने रोजमर्रा के कार्य के निकल पडते। उन दिनो गावो के स्कूल सुबह 9बजे खुलते सभी 8 वर्ष से उपर के बच्चो को भी सुबह 6 से 7बजे उठना ही होता था और दरवाजे पर होने वाले छोटे मोटे सभी कार्य इन बच्चो को ही करना पडता और इसके पश्चात स्कूल की तैयारी मे लग जाते। कुल मिला कर इन संयुक्त परिवारो मे हमारा भारत बसता था।
इन अच्छाईयो के साथ कमिया भी होती थी जैसे .. कोई भी सदस्य घर की अनुसाशित सीमाओ से बाहर सिर्फ अपने लिए नही सोच सकता था किसी की अपनी ब्यक्तिगत जिन्दगी नही होती थी परिवार सिर्फ बडे मुखिया के ही नाम से जाना था। किसी भी सदस्य को अपने ससुराल जाना हो या किसी औरत को मायके जाना हो बिना घर के दूसरे नम्बर के मुखिया की आज्ञा के नही जा सकता था। कुल मिलाकर सभी सदस्य परिवार के लिए होते परिवार पहले बीबी सबसे बाद मे। यहा परिवार से मेरा तात्पर्य संयुक्त परिवार न की आजकल की तरह ✝मै, मेरी बीबी, मेरा बच्चा मिलकर परिवार कहलाता है✝ जिसमे बडे बूढो का स्थान न के बराबर होता है। ऐसे मे कुछ पंक्तियां......
जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने
दादी की हँसुली ने, माँ की पायल ने
उस सच्चे घर की कच्ची दीवारों पर
मेरी टाई टँगने से कतराती है।
माँ को और पिता को यह कच्चा घर भी
एक बड़ी अनुभूति, मुझे केवल घटना
यह अंतर ही संबंधों की गलियों में
ला देता है कोई निर्मम दुर्घटना
जिन्हें रँगा जलते दीपक के काजल ने
बूढ़ी गागर से छलके गंगाजल ने
उन दीवारों पर टँगने से पहले ही
पत्नी के कर से साड़ी गिर जाती है।
जब से युग की चकाचौंध के कुहरे ने
छीनी है आँगन से नित्य दिया-बाती
तबसे लिपे आँगनों से, दीवारों से
बंद नाक को सोंधी गंध नहीं आती
जिसे चिना था घुटनों तक की दलदल ने
सने-पुते-झीने ममता के आँचल ने
पुस्तक के पन्नों में पिची हुई राखी
उस घर को घर कहने में शरमाती है।
साड़ी-टाई बदलें, या ये घर बदलें
प्रश्नचिह्न नित और बड़ा होता जाता
कारण केवल यही, दिखावों से जुड़ हम
तोड़ रहे अनुभूति, भावना से नाता
जिन्हें दिया संगीत द्वार की साँकल ने
खाँसी के ठनके, चूड़ी की हलचल ने
उन संकेतों वाले भावुक घूँघट पर
दरवाज़े की 'कॉल बैल' हँस जाती है।
क्रमशः..............