Wednesday 21 January 2015

विकास की आंधी और हमारा गांव समाज

कल और आज का गांव

         कल ....

भोर होते ही देशी गाय के बछडे का रम्भाना
बैलों के गले में बन्धी घन्टी का बजना
देशी गाय और भैसो से निकला ताजा दूध
सुबह सुबह मां का सोंधी मिट्टी के बर्तन मे जमाई
दही का मथना और मक्खन निकलना
सुबह का नास्ता मिट्टी के चूल्हे पर सेकी हुई
मोटी मोटी रोटी को मक्खन के साथ खाना
शाम होते ही अलाव का जलना
गांव के बच्चो बड़े बूढ़ो को इकट्ठा होना
खेत खलिहानो और दिन भर के खेतो पर हुए कार्यो पर चर्चा
दूसरे दिन की दिनचर्या पर बहस
रात के खाने के साथ
मिट्टी के बर्तन मे रख कर दिन भर उपले पर धीमी आंच पर पकाया हुआ गुलाबी गरम दूध
और साथ मे मिट्टी के चूल्हे की रोटी
कहां लुप्त हो गया दादी और मां के साथ .......

   आज......

विकास की दौड़ मे रूपया कमाने की होड़ मे
तेजी से दौड़ते हुए
देशी गायों की जगह विदेशी गायो ने ले लिया
बैलो की जगह ट्रैक्टरो ने लिया
ताजा दूध और घर की गुलाबी दही की जगह
बाजार से खरीदे पास्चुराइज्ड मिल्क
और प्लास्टिक के कप मे जमे हुए दही ने ले लिया
मां के निकाले मक्खन की जगह
अमूल, पराग, मदर डेयरी की मक्खन की टिक्की ने ले लिया.......

आज भी गाव मे अलाव जलता है
या कभी कभार बिजली होने पर हीटर
किन्तु कमरे के अन्दर जिसमे टी वी होता है
आज भी बाते होती है
जिसमे सिर्फ एक परिवार
जिसमे मियां बीबी और बच्चा ही होता है
बात होती है
सास बहू के सीरियल पर
समाज सिमट कर कमरे मे आ गया

कितना विकास हुआ क्या खोया क्या पाया......

कल ..........2....

बाबा, दादी, दादा, बडी मां, पिताजी, मां, चाचा, चाची सभी बच्चे एक मकान मे रहते थे
जिसको घर कहा जाता था
सभी का खाना मिट्टी के चूल्हे पर बनता था
बड़ी मां और मां चौके (अंग्रेजी मे किचन) मे खाना बनाती थी
बड़ी मां रोटी सेंकती थी,
मां रोटी चकले पर बेलती थी
चाची सभी बच्चो को इकट्ठा करके खाना खिलाती
दादी और बाबा बच्चो को रात को सोने से पहले परियों और राजा रानी की कहानिया सुनाते

आज..........2

पापा, मम्मी और एक या दो बच्चे
इसको मकान कहा जाता है
पिताजी, बाबूजी और अम्मा, मां शब्द विलुप्त होने के कगार पर है
आज गांवो मे इन शब्दो की जगह पापा और मम्मी ने लिया
मिट्टी का चूल्हा पूरी तरह से लुप्त हो चुका
इसकी जगह गैस चूल्हे ने ले लिया
चाचा चाची, पिताजी और मां ने
शहरो की तरफ रुख कर लिया
सभी बच्चो के साथ शहर के हो गये
या आधुनिक विकास की दौड़ मे शामिल हो गये ?
बड़े पिताजी और बड़ी मां गांव पर खेती देखते है,
एक रखवाले की तरह
जिनका काम सिर्फ खेतो की कटाई के बाद
बटाई का हिस्सा लेने तक सीमित होता है
80% बटाई पर खेती होती है

कैसी बिडम्बना है
आज हम बाध्य है खेतो को बटाई पर देने को
कुछ अपने निकम्मेपन के कारण,
कुछ सरकारो द्वारा चलाये जाने वाले
गाववासियो को अकर्मण्य बना देने वाले
विकास कार्यक्रमो के कारण
बटाई पर खेत लेने वाला महान आदमी
हमारे बाबा दादी के जमाने मे
हमारे खेतो मे हल चलाने वाला हलवाहा होता है,
या गाव का एक गरीब मजदूर जो आधुनिक विकास की आंधी से अछूता है .......

दादी बड़ी चालाक निकली,
जिसने अपने चलते फिरते
बाबा को साथ लेकर चारोधाम की यात्रा की
फिर आते ही अपने दरवाजे पर एक मंदिर बनवाई
मंन्दिर बनने के दो तीन वर्षो के बाद
इस फ़ानी दुनिया से चली गई बाबा
अपने एक बेटे साथ शहर मे बस गये
कुछ एसी ही मिलती जुलती कहानी
गाव के हर परिवार की है
समाज, गांव, परिवार
सिमट रहे है या बिखर रहे है या विकास कर रहे हैं आज तक समझ नही सका........

क्रमशः.........